Friday 5 August 2011

किस करवट बैठेगा ‘भ्रष्टाचार का ऊंट

 निर्मल रानी]
वरिष्ठ गांधीवादी एवं समाजसेवी अन्ना हज़ारे द्वारा भ्रष्टाचार के मुद्दे को प्रबलता से उठाए जाने के बाद निश्चित रूप से देश में भ्रष्टाचार विरोधी वातावरण बहुत तेज़ी से बनता दिखाई दे रहा है। भले ही केंद्र सरकार द्वारा कथित ‘सिविल सोसायटी’ का प्रतिनिधित्व करने वाली,टीम अन्ना द्वारा सुझाए गए जनलोकपाल विधेयक के प्रारूप को पूरी तरह स्वीकार न किया गया हो परंतु इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि सरकार द्वारा सदन में लोकपाल विधेयक लाए जाने में तत्परता दिखाए जाने का कारण भी महज़ टीम अन्ना हज़ारे द्वारा सरकार पर डाला गया दबाव ही है। अन्ना हज़ारे द्वारा गत् 4 अप्रैल को जंतर-मंतर पर किए गए आमरण अनशन तथा उसी दौरान न केवल लगभग पूरे देश में बल्कि कई अन्य देशों में भी अनशन, प्रदर्शन व धरनों के बाद तथा इन सब के बाद केंद्र सरकार द्वारा टीम अन्ना के समक्ष घुुटने टेकने की घटना के पश्चात भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम और अधिक र$फतार पकड़ चुकी है। अन्ना हज़ारे द्वारा 4 अप्रैल को जंतर-मंतर पर किए गए आमरण अनशन से लेकर अब तक के तमाम उतार-चढ़ाव के बाद अब एक बार फिर पूरा देश आने वाली 16 अगस्त यानी अन्ना के आमरण अनशन की एक और धमकी वाले दिन का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार कर रहा है। देश की आम जनता अब वास्तव में यह जानना चाहती है कि देखें भ्रष्टाचार रूपी दैत्याकार ऊं ट आखिऱ किस करवट बैठता है।

भ्रष्टाचार संबंधी बहस इस समय वैसे भी देशवासियों के लिए दिलचस्पी का अहम मुद्दा इसलिए बन गई है क्योंकि भ्रष्टाचार में डूबा,भ्रष्टाचार का आदी हो चुका तथा भ्रष्टाचार करने के लिए मजबूर व अपनी सुविधाओं के चलते भ्रष्टाचार क ो प्रोत्साहन देने वाला देश का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करने अथवा इस पर अंकुश लगाने जैसी बातों को रचनात्मक बात नहीं मानता। शायद यही वजह है कि भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार डा० कौशिक बसु ने रिश्वत $खोरी को सुविधा शुल्क का नाम देते हुए इसे वैधानिक जामा पहनाए जाने की वकालत की थी। बहरहाल भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर आम लोगों क ा अलग-अलग मतों में बंटा होना इस बात का प्रमाण नहीं माना जा सकता कि रिश्वत ख़ोरी व भ्रष्टाचार सभ्य एवं सम्मान जनक राष्ट्र के निवासियों के लक्षण हैं। निश्चित रूप से भ्रष्टाचार व रिश्वत खोरी इस समय देश को दीमक के समान चाटे जा रहे हैं और यही बुराई, काला धन, जमा$खोरी विभिन्न प्रकार के अपराध,अराजकता, देश में फैली $गरीबी,बदहाली,अव्यवस्था यहां तक कि बदहाल समाज की नुमांईदगी करने का दम भरने वाले हिंसक माओवाद तथा नक्सलवाद की भी जड़ हैं। भ्रष्टाचार देश के चहुंमुखी विकास के लिए भी बड़ा रोड़ा है।

राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रप्रेम तथा देश के विकास की उम्मीदें संजोने वाला हर व्यक्ति निश्चित रूप से इस समय भ्रष्टाचार से बेहद दुखी है। यदि ऐसा न होता तो अन्ना हज़ारे जैसे साधारण सामाजिक कार्यकर्ता के साथ देश का असंगठित भ्रष्टाचार विरोधी समाज जंतर-मंतर पर किए गए मात्र चंद दिनों के उनके अनशन के दौरान राष्ट्रीय स्तर पर उनके साथ इस प्रकार संगठित होकर खड़ा न हुआ होता। अन्ना हज़ारे ने निश्चित रूप से ऐसे समय में जन लोकपाल विधेयक की मांग के साथ भ्रष्टाचार के मुद्दे को उछाला है जबकि देश के लोगों को ऐसा महसूस होने लगा था कि गोया देश की व्यवस्था अब देश को बेच खाने पर ही उतारू हो गई है। जिस देश मेें केंद्रीय मंत्री, भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्रवाद का स्वयं भू पैरोकार बताने वाली भारतीय जनता पार्टी जैसे दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण, मुख्यमंत्री के रूप में मधु कौड़ा जैसे लुटेरे, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण, सुरेश कलमाड़ी जैसी हस्तियां तथा देश के अन्य तमाम राज्यों के तमाम मंत्री,सांसद तथा विधायक आदि भ्रष्टाचार, रिश्वतख़ोरी में संलिप्त पाए जाएं तथा देश के तमाम नेता, उच्च अधिकारी यहां तक कि लिपिक स्तर के कर्मचारी तक आय से अधिक धन संपत्ति इक_ी करने लग जाएं तो ऐसे में देश के आम आदमी विशेषकर ईमानदार व सच्चे राष्ट्रभक्त व्यक्ति का चिंतित होना स्वाभाविक ही है।

जंतर-मंतर पर 4 अप्रैल को हुए अन्ना हज़ारे के अनशन से लेकर 16 अगस्त क ो उन्हीं के द्वारा इसी मुद्दे पर पुन: आमरण अनशन शुरू करने के अंंतराल के दौरान टीम अन्ना तथा केंद्र सरकार के मध्य वार्ताओं का जो दौर चला तथा संसद में पेश किए जाने वाले सरकारी लोकपाल विधेयक व टीम अन्ना द्वारा प्रस्तावित जनलोकपाल विधेयक के मसविदों के मध्य जो टकराव व विवाद की स्थिति देखी जा रही है उसे देखकर भी आम जनता बेहद दुखी है। प्रधानमंत्री हों अथवा देश का मुख्य न्यायधीश यहां तक कि भारत का सर्वाेच्च प्रथम नागरिक भारतीय राष्ट्रपति तक हमारे ही देश के समाज के सदस्य होते हैं। किसी भी बड़े से बड़े अथवा छोटे से छोटे पद पर बैठने वाले व्यक्ति का पारदर्शी होना अथवा उसे अपने ऊपर लगने वाले किन्हीं आरोपों का जवाब देना किसी भी व्यक्ति के लिए कोई अपमानजनक बात नहीं मानी जा सकती। यहां यह लिखने की ज़रूरत तो नहीं कि देश का कौन-कौन सा विभाग रिश्वत व भ्रष्टाचार का गढ़ बन चुका है। बजाए इसके यह ज़रूर सवाल किया जा सकता है कि देश की व्यवस्था स्वयं इस बात का जवाब दे कि आखिर देश का कौन सा विभाग ऐसा है जिसमें भ्रष्ट लोग नहीं हैं। जिसमें रिश्वत $खोरी $कतई नहीं चलती या जिससे जुड़े लोग बिना किसी दबाव या सिफारिश के काम नहीं करते ? भ्रष्टाचार के संबंध में बार-बार जो यह बात कही जा रही है कि देश आकंठ भ्रष्टचार में डूबा है इसका अर्थ ही यही है कि देश के लगभग सभी तंत्र यहां तक कि सारी की सारी व्यवस्था भ्रष्टाचार में डूबी हुई है।

ऐसे में सरकार का ‘टीम अन्ना’ द्वारा सुझाए गए जनलोकपाल विधेयक के मसविदे पर उंगली उठाने या उसे अस्वीकार करने अथवा उस पर बेवजह की नुक्ताचीनी करने का कोई औचित्य नज़र नहीं नहीं आता। आम जनता प्रधानमंत्री व मुख्य न्यायाधीश को लोकपाल विधेयक के दायरे से बाहर रखने के सरकारी पक्ष से $कतई सहमत नज़र नहीं आती। सरकार द्वारा अपने लोकपाल विधेयक के पक्ष में जितने तर्क दिए जा रहे हैं सभी तर्कों को टीम अन्ना $खारिज कर रही है। सरकार जहां टीम अन्ना के जनलोकपाल विधेयक मसौदे को स्वीकार करने में आनाकानी कर रही है वहीं टीम अन्ना सरकारी मसौदे को जनता के साथ मज़ाक तथा धोखा बता रही है। मज़े की बात तो यह है कि सरकारी पक्ष की ओर से भी प्रणव मुखर्जी जैसे वरिष्ठ नेता पैरोकार हैं जिनकी ईमानदारी को लेकर संदेह नहीं किया जा सकता। सरकारी पक्ष का भी इत्ते$फा$क से वही कहना है जो टीम अन्ना कह रही है या जो देश का आम नागरिक कह रहा है। अर्थात् भ्रष्टाचार व रिश्वत$खोरी बंद हो, भ्रष्टाचारियों को स$ख्त सज़ा हो तथा इनकी भ्रष्टाचार की कमाई को सरकार ज़ब्त करे। ऐसे में मात्र मुख्य न्यायधीश तथा प्रधानमंत्री को लोकपाल की जांच परिधि से बाहर रखने का सरकारी पक्ष का मत जनता के गले से नहीं उतर पा रहा है। सरकार द्वारा अपनी इस बात के पक्ष में दिए जाने वाले सभी तर्क भी बेदम नज़र आ रहे हैं।

ऐसे में संदेह यह होने लगा है कि क्या वास्तव में सरकार व टीम अन्ना के बीच का मतभेद सिर्फ इसी विषय को लेकर है कि प्रधानमंत्री व मुख्य न्यायाधीश लोकपाल की जांच के दायरे में आएं या न आएं? अथवा सरकार द्वारा इस मुद्दे को केवल इसलिए बहाने के रूप में इस्तेमाल किया गया है ताकि सदन में इसे लाने से टाला जा सके। और यदि सरकार टाल-मटोल के लिए मसविदे के इस विशेष बिंदु को बहाना बना रही है फिर आखिर इस बहाने बाज़ी की वजह व इसका रहस्य क्या है? और इस मामले में एक दुर्भाग्य पूर्ण बात यह भी दिखाई देती है कि जब भी टीम अन्ना के सदस्य सरकारी पक्ष के तर्कों को अपने तर्कों से धराशायी करते हैं उस समय सरकारी पक्ष के पैरोकार आनन-$फानन में देश के लोकतंात्रिक ढांचे तथा संवैधानिक व्यवस्था का तकनीकी सहारा लेकर टीम अन्ना से यह पूछने लग जाते हैं कि आप हैं कौन? किसने दिया आपको यह अधिकार कि आप स्वयंभू रूप से देश की जनता के बैठे -बिठाए नुमाइंदे बन बैठें? सरकारी पक्ष के पैरोकारों का यह तर्क तर्कपूर्ण,वैधानिक अथवा संवैधानिक तो माना जा सकता है परंतु नैतिक कतई नहीं।

इस विषय पर अन्ना हज़ारे हालांकि चुने गए जनप्रतिनिधियों को स्वीकार करते हैं उन्हें मानते हैं तथा चुने गए जनप्रतिनिधि के नाते उन्हें पूरा सम्मान व महत्व भी देते हैं। और यही वजह है कि लोकपाल विधेयक के माध्यम से भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने का जि़म्मा अन्ना हज़ारे सरकार व निर्वाचित जनप्रतिनिधियों पर ही छोडऩा चाहते हैं। वे स्वयं इस भ्रष्टाचार विरोधी सुधार तंत्र का हिस्सा नहीं बनना चाहते। परंतु अन्ना हज़ारे जनता के मध्य समाजसेवी की अपनी हैसियत व पहचान को चुनौती देने वाले ‘वास्तविक’ जनप्रतिनिधियों को यह ज़रूर याद दिलाते हैं कि आप को जनता ने अपना प्रतिनिधि इसलिए नहीं चुना कि आप देश को लूटें, बेचें और खाएं। बल्कि इसलिए चुना है ताकि आप देश को भ्रष्टाचार से मुक्त रखते हुए पूरी ईमानदारी व पारदर्शिता के साथ इसे प्रगति के पथ पर ले जा सकें।

सरकारी पक्ष व टीम अन्ना के मध्य का विवाद अब इस इंतेहा तक पहुंच चुका है कि अन्ना हज़ारे ने जन लोकपाल विधेयक के अपने प्रारूप के सर्मथन में एक बार फिर 16 अगस्त को दिल्ली में आमरण अनशन करने की घोषणा कर दी है। इसे वे स्वतंत्रता की दूसरी लड़ाई का नाम दे रहे हैं। सरकार द्वारा भी जंतर मंतर पर हुए अन्ना हज़ारे के पिछले आमरण अनशन के बाद तथा बाद में ‘रामलीला’ मैदान में हुए अपने अनुभव के अनुसार 16 अगस्त के लिए भी रक्षात्मक $कदम उठाने की कोशिश की जा रही है। कभी धारा 144 लगाई जाती है तो कभी अदालत के भयवश इस आदेश को वापस भी ले लेती है। और कभी जंतर-मंतर को अनशन स्थल के लिए प्रयोग करने की इजाज़त देने से इंकार किया जाता है। ऐसे तनावपूर्ण वातावरण में आम जनता की नज़रें एक बार फिर 16 अगस्त पर जा टिकी हैं। इसमें कोई शक नहीं कि देश में भ्रष्टाचार विरोधी इतनी व्यापक मुहिम पहले कभी नहीं छिड़ी। आम आदमी की नजऱें इस लिए भी 16 अगस्त पर जा टिकी हैं कि आखिर टीम अन्ना व सरकारी पक्ष के मतभेदों व विवादों के बीच भ्रष्टाचार का यह ऊंट बैठेगा किस करवट? 

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