Tuesday 30 August 2011

यह दुनिया तुम्हारे हाथों पर टिकी है, गाय, बैल की सिंगों पर नहीं

‘वरिष्ठ लेखक व साहित्यकार शंकर पुणताम्बेकर की एक लघु कथा हैं- ‘नाव चली जा रही थी। मझदार में नाविक ने कहा- नाव में बोझ ज्यादा है। कोई एक आदमी कम हो जाए तो अच्छा। नहीं तो नाव डूब जाएगी। अब कम हो जाए तो कौन हो जाए, कई लोग तो तैरना नहीं जानते थे। जो जानते थे। उसके लिए भी परले जाना खेल नहीं था। नाव में सभी प्रकार के लोग थे। डाक्टर, अफसर, वकील, व्यापारी, उद्योगपति, पुजारी, नेता के अलावा एक आम आदमी भी। डाक्टर, वकील, व्यापारी ये सभी चाहते थे कि आम आदमी पानी में कूद जाए। वह तैरकर पार जा सकता है, हम नहीं। उन्होंने आम आदमी से कूद जाने को कहा, तो उसने मना कर दिया।

बोला मैं जब डूबने को हो जाता हूं तो आप में से कौन मेरी मदद को दौड़ता है, जो मैं आपकी बात मानूं। जब आम आदमी काफी मनाने के बाद भी नहीं माना तो ये लोग नेता के पास गए, जो इन सबसे अलग एक तरफ बैठा हुआ था। इन्होंने सब-कुछ नेता को सुनाने के बाद कहा-आम आदमी हमारी बात नहीं मानेगा तो हम उसे पकड़कर नदी में फेंक देंगे। नेता ने कहा, नहीं-नहीं, ऐसा करना भारी भूल होगी। आम आदमी के साथ अन्याय होगा। मै देखता हूं उसे। मैं भाषण देता हूं। तुम लोग भी उसके साथ सुनो। नेता ने जोशीला भाषण आरम्भ किया जिसमें राष्ट्र, देश, इतिहास, परम्परा की गाथा गाते हुए देश के लिए बलि चढ़ जाने के आह्वान में हाथ ऊंचा कर कहा, हम मर मिटेंगे लेकिन अपनी नैया नहीं डूबने देंगे, नहीं डूबने देंगे, नहीं डूबने देंगे। सुनकर आम आदमी इतना जोश में आया कि वह नदी में कूद पड़ा और, नाव डूबने से बच गई।’

यह कथा आज के संदर्भ में आम आदमी की करूण गाथा को चित्रित करती है। ऐसी ही तस्वीर आज कुछ हमारे देश की भी है। वह बचना चाहता है तो लोग उसे डुबाना चाहते हैं। आज आम आदमी की बात सभी करते हैं। नेता, मीडिया, व्यापारी सभी। आम आदमी न हो तो देश का काम ही नहीं चल सकता। आम आदमी के हित के बारे में सभी सोचते हैं। वह आम आदमी ही है जो देश की सरकार बनाता है, सरकार गिराता है। वही है जो फैक्ट्रियों में हाड़-तोड़ मेहनत करता है। वह भी है जो खेतों में अनाज पैदा करता है और देश के और लोगों को खिलाने के लिए अपनी उपज मंडियों में दे आता है। आम आदमी की महत्ता के बारे में सोचा जाए तो कोई भी ऐसा काम नहीं है जो बिना उसके संपन्न हो सके। आम आदमी न हो तो रईशों की रईशी रह सकती है, न अमीरों की अमीरी, न ही चल सकती है नेताओं की राजनीति। यानी कि देश का सब कुछ यदि ठीक-ठाक चल रहा है तो आम आदमी के मजबूत कंधों पर।

आम आदमी ही है जो सभी को शांति प्रदान करता है। वह तमाम समस्याओं की जड़ भी है और समाधान भी लेकिन इस आम आदमी की सच्ची तस्वीर कोई देखना ही नहीं चाहता। सत्ता के गलियारों में आम आदमी की खूब चर्चा होती है। सरकारों की तमाम योजनाएं आम आदमी के लिए बनती हैं। देश का बजट तैयार होता है तो उसमें सबसे ज्यादा यदि किसी का ध्यान रखा जाता है तो वह आम आदमी ही है। बजट ही उसके लिए बनता है। आम आदमी आज सबकी दुकानदारी चला रहा है। सबका टारगेट आम आदमी है, फिर भी वह किसी के टारगेट पर नहीं है। वह हर जगह छला जा रहा है। आम आदमी के मेहनती हाथों पर ही यह दुनिया टिकी हुई है।

तुर्की के प्रसिद्ध कवि नाजिम हिकमत की आम जनता को संबोधित एक कविता है- तुम्हारे हाथ और उनके झूठ। जिसमें कहा गया है कि यह दुनिया तुम्हारे हाथों पर टिकी है, गाय, बैल की सिंगों पर नहीं। इस संवेदनशील जनवादी कविता में आम आदमी की आशा और आकांक्षाओं को उसके श्रमिक हाथों की बुनियाद पर उकेरा गया है। इसी तरह मुंशी प्रेमचंद के घीसू और माधव तथा होरी के जिंदगी में आजादी के लंबे अर्से बाद भी सवेरा कहां आ पाया है। आम आदमी के प्रति संवेदनहीनता कम होने के बजाए बढ़ती ही जा रही है। आज जिनके कंधों पर यह जिम्मेदारी है, वे ही गैर जिम्मेदारी निभाते हुए जिम्मेदारी का आवरण ओढ़े सुख भोगते फिर रहे हैं। राजनीति में अनेक विसंगतियां दिखाई देती हैं। आम आदमी की बात करने वाले नेता उससे इतनी दूरी बनाकर रखते हैं, जहां से वह दिखाई तो देता है लेकिन उसकी आवाज वहां तक नहीं पहुंचती। इसके लिए अब मध्यस्थ की जरूरत पड़ने लगी है। इस मध्यस्थता ने ही आम आदमी को सबसे ज्यादा छला है। आम आदमी की बात करने वाले नेता के सामने ही उसके हितों की बलि चढ़ाई जा रही है। नाव से कूद जाने की परिस्थितियां उत्पन्न की जा रही हैं।

आम आदमी के लिए जिस आदर्श की बात की जाती है, वे आदर्श ही खोखले और अनैतिक नजर आते हैं। ऐसे में उसके सामने समाज और देश की कैसी तस्वीर उभर सकती है। भरोसा यह है कि वही इन परिस्थितियों से उबारने में सक्षम है लेकिन वह विवश है गहरे पानी में कूद जाने को। देखा जाए तो आज जो कुछ चल रहा है, उसके पीछे आम आदमी की ताकत ही है। अस्पताल, कालेज, मंड़ी सब कुछ। भ्रष्टाचार, आतंक, गरीबी, भुखमरी जैसे अनेक थपेड़े उस पर रोज पड़ रहे हैं। आज वह इनसे खुद को टूटा हुआ महसूस करने लगा है इसी बीच एक आवाज आती है अन्ना हजारे की। उस आवाज में आम आदमी को अपनी आवाज सुनाई देती है तो वह उस आवाज में अपनी आवाज मिलाने बैठ जाता है। यह तारतम्य कब तक बना रहेगा, उसे भी नहीं पता।

बात मीडिया की करते हैं तो आम आदमी वहां भी छला जाता दिखाई देता है। वहां पहले भी आम आदमी की बात की जाती थी और आज भी। बस उसका नजरिया बदल गया है। जबसे मीडिया का नजरिया बदला है, तबसे आम आदमी भी उसे दूसरी नजर से देखने लगा है। अब मीडिया आम आदमी को एक बाजार के रूप में देखने लगा है। यह आम आदमी का अधुनातन रूप है। वह आज एक सवाल बन गया है। ऐसा सवाल जिसका हल भी वह खुद है। आम आदमी तो अर्से से नैया न डूबने देने की कोशिश में अपने को कुर्बान करता आ रहा है लेकिन जो समर्थ और खास लोग हैं, वे उस कुर्बानी को भी स्वा

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