Friday, 5 August 2011
हमारी आस्था बनी नागों की मुसीबत
खंडवा [ नदीम रॉयल ]नागपंचमी आते ही सपेरों के पीटारे सड़कों पर नजर आने लगे हैं. यह समला जीव अत्याचार की श्रेणी में आता है. फिर भी कई गरीब सपेरों का पेट पल रहा है. यहां तक की वनविभाग वाले भी इन सपेरों की जरूरत पड़ने पर सहायता लेते हैं. नागपंचमी पर पुण्य कमाने के लिए पांच सौ से एक हजार रूपए तक लेकर ये बंदी बनाएं सांपों को रिहा भी करते हैं. इतना नहीं अधिकांषतः सपेरे अपने बच्चों के नाम भी सांप की प्रजातियों वाले ही रखते हैं. पद्मानागिन, घोडापछाड़ देषी प्रजातिया कालबेलिएं लेकर धूमते मिल जाएंगे. लगभग पच्चीस से तीस सपेरों ने षहर में डेरा डाल रखा है. नागपंचमी के कुछ दिन बाद तक ये षहर में दिखाई पडे़गे. सौ से अधिकांष सांप और उनेक जोडे़ इनके पास बंदी है.
वनविभाग भी सहयोगी: सांप यदि फन फैलाता हुआ दिख जाए, तो अच्छे-अच्छे को पसीना आ जाता है. वनविभाग वाले भी सांप पकड़ने के लिए हमे बुलाते है़ यह कहना था सपेरे जारूनाथ का. वैसे तो फारेस्ट की जिम्मेदारी जानवरों की सुरक्षा है. सपेरों की माने तो वनविभाग के अधिकारी और कर्मचारी भी अपनी जान बचाने के लिए सांप पकड़ने बुलाते है़ इनकी जिंदगी और मौत के बीच कोई बड़ा फासला नहीं होता है़ थोडी सी गलती हुई और पलभर में मौत़ कितने ही अनुभवी भी सांप काटने से मौत के षिकार हो चुके है़ पेट की
मजबूरी या परंपरा:
हाथ पे सांप कटवाना और बीन पर नचवाने में जान जोखिम में डालने का काम है. कुछ सपेरों के लिए यह मजबूरी है, तो कुछ के लिए परंपरा निर्वाह करना. एक सपेरे ने बताया कि पीढ़ियों से वे यह काम कर रहे है. उनके भगवान कनकनाथ की आज्ञा से परिवार वाले इस काम में लगे हुए है. वास्तव में वे योगीनाथ घराने से है. सांप को काल कहा जाता है. इसे पकड़ने के कारण कालभेड़िए लोग कहते हैं कि दिनभर में पंचास से साट रूपए आमदनी हो पाती है. सावन में अच्छी कमाई हो जाती है. नागपंचमी पर मिले कपडे़ सालभर चल जाते है. मनुबय को काटने पर जहर उतारने का फन पीढि.यों से मिला है. यदि दिमाग में जहर फैल जाए, तो उसे कोई नहीं बचा सकता.
. सांप मांसाहारी होता है. सपेरे इन्हें पकड़कर दूध में आटा घोलकर पिलाते है. इससे इनकी आयु घटती है.
. विबा ग्रंथि निकाल दी जाती है. जिंदा छोड़ने पर भी सांप के बचने की कोई उम्मीद नहीं रहती. विबा इने लिए एंटीबायोटिक होता है.
. बनी की आवाज से ये प्रसन्न होकर नहीं नाचते, बल्कि इसके कंपन्न से घबराकर फन फैलाकर खडे़ हो जाते है.
. नागपंचमी पर पैसे की लालच में जबरन दूध मुंह में डाला जाता है अधिक होने पर इनी मौत भी हो सकती है.
tez news
i Love My Fazilka
वनविभाग भी सहयोगी: सांप यदि फन फैलाता हुआ दिख जाए, तो अच्छे-अच्छे को पसीना आ जाता है. वनविभाग वाले भी सांप पकड़ने के लिए हमे बुलाते है़ यह कहना था सपेरे जारूनाथ का. वैसे तो फारेस्ट की जिम्मेदारी जानवरों की सुरक्षा है. सपेरों की माने तो वनविभाग के अधिकारी और कर्मचारी भी अपनी जान बचाने के लिए सांप पकड़ने बुलाते है़ इनकी जिंदगी और मौत के बीच कोई बड़ा फासला नहीं होता है़ थोडी सी गलती हुई और पलभर में मौत़ कितने ही अनुभवी भी सांप काटने से मौत के षिकार हो चुके है़ पेट की
मजबूरी या परंपरा:
हाथ पे सांप कटवाना और बीन पर नचवाने में जान जोखिम में डालने का काम है. कुछ सपेरों के लिए यह मजबूरी है, तो कुछ के लिए परंपरा निर्वाह करना. एक सपेरे ने बताया कि पीढ़ियों से वे यह काम कर रहे है. उनके भगवान कनकनाथ की आज्ञा से परिवार वाले इस काम में लगे हुए है. वास्तव में वे योगीनाथ घराने से है. सांप को काल कहा जाता है. इसे पकड़ने के कारण कालभेड़िए लोग कहते हैं कि दिनभर में पंचास से साट रूपए आमदनी हो पाती है. सावन में अच्छी कमाई हो जाती है. नागपंचमी पर मिले कपडे़ सालभर चल जाते है. मनुबय को काटने पर जहर उतारने का फन पीढि.यों से मिला है. यदि दिमाग में जहर फैल जाए, तो उसे कोई नहीं बचा सकता.
. सांप मांसाहारी होता है. सपेरे इन्हें पकड़कर दूध में आटा घोलकर पिलाते है. इससे इनकी आयु घटती है.
. विबा ग्रंथि निकाल दी जाती है. जिंदा छोड़ने पर भी सांप के बचने की कोई उम्मीद नहीं रहती. विबा इने लिए एंटीबायोटिक होता है.
. बनी की आवाज से ये प्रसन्न होकर नहीं नाचते, बल्कि इसके कंपन्न से घबराकर फन फैलाकर खडे़ हो जाते है.
. नागपंचमी पर पैसे की लालच में जबरन दूध मुंह में डाला जाता है अधिक होने पर इनी मौत भी हो सकती है.
tez news
i Love My Fazilka
भारत,ग्लोबल वॉर्मिन्ग और बढती आबादी
भारत ग्लोबल वॉर्मिन्ग के लिहाज से हॉट स्पॉट है और इस वजह से यहां बाढ़, सूखा और तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ सकती हैं। एशिया में भारत के अलावा पाकिस्तान, अफगानिस्तान और इंडोनेशिया उन देशों में शामिल हैं, जो अपने यहां चल रही राजनैतिक, सामरिक, आर्थिक प्रक्रियाओं के कारण ग्लोबल वॉर्मिन्ग से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे।
किसी भी प्राकृतिक आपदा का प्रभाव कई कारकों के आधार पर मापा जाता है। मसलन सही उपकरणों और सूचना तक पहुंच और राहत और उपाय के लिए प्रभावी राजनैतिक तंत्र। कई बार इनका प्रभावी तरीके से काम न करना आपदा से प्रभावित होने वाले हाशिए पर पड़े लोगों की जिंदगी और भी बदतर कर देता है।
मौसम में बदलाव के कारण ज्यादा बड़े स्तर पर आने वाली प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए प्रभावी तंत्र बनाया जाए, नही तो तबाही और ज्यादा होगी। घनी आबादी वाले और खतरे की आशंका से जूझ रहे इलाकों में सरकारी तंत्र और स्थानीय लोगों को सुविधाएं और प्रशिक्षण दिया जाए, ताकि आपदा के बाद पुनर्वास के दौरान तेजी बनी रहे और काम की निगरानी भी हो।
हमारी पर्यावरण चिंताओं पर यह निराशावादी सोच इतनी हावी होती जा रही है कि अब यह कहना फैशन बन गया है कि जनसंख्या यूं ही बढ़ती रही तो 2030 तक हमें रहने के लिए दो ग्रहों की जरूरत होगी।
वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) और पर्यावरण संरक्षण से जुड़े कई अन्य संगठन इस फुटप्रिंट को आधार बनाकर जटिल गणनाएं करते रहे हैं। उनके मुताबिक हर अमेरिकी इस धरती का 9।4 हेक्टेयर इस्तेमाल करता है। हर यूरोपीय व्यक्ति 4.7 हेक्टेयर का उपयोग करता है। कम आय वाले देशों में रहने वाले लोग सिर्फ एक हेक्टेयर का इस्तेमाल करते हैं। कुल मिलाकर हम सामूहिक रूप से 17.5 अरब हेक्टेयर का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से हम एक अरब इंसानों को धरती पर जीवित रहने के लिए 13.4 हेक्टेयर ही उपलब्ध है।
सभी तरह के उत्सर्जन में 50 फीसदी की कटौती से भी हम ग्रीन हाउस गैसों को काफी हद तक कम कर सकते हैं। एरिया एफिशियंशी के लिहाज से कार्बन कम करने के लिए जंगल उगाना बहुत प्रभावी उपाय नहीं है। इसके लिए अगर सोलर सेल्स और विंड टर्बाइन लगाए जाएं, तो वे जंगलों की एक फीसदी जगह भी नहीं लेंगे। सबसे अहम बात यह है कि इन्हें गैर-उत्पादक क्षेत्रों में भी लगाया जा सकता है। मसलन, समुद में विंड टर्बाइन और रेगिस्तान में सोलर सेल्स लगाए जा सकते हैं।
जर्नल 'साइंस' में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, भारत समेत तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों को तेजी से बढ़ती जनसंख्या और उपज में कमी की वजह से खाद्य संकट का सामना करना पड़ेगा। तापमान में बढ़ोतरी से जमीन की नमी प्रभावित होगी, जिससे उपज में और ज्यादा गिरावट आएगी। इस समय ऊष्ण कटिबंधीय और उप-ऊष्ण कटिबंधीय इलाकों में तीन अरब लोग रह रहे हैं।एक अनुमान के मुताबिक 2100 तक यह संख्या दोगुनी हो जाएगी। रिसर्चरों के अनुसार, दक्षिणी अमेरिका से लेकर उत्तरी अर्जेन्टीना और दक्षिणी ब्राजील, उत्तरी भारत और दक्षिणी चीन से लेकर दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया और समूचा अफ्रीका इस स्थिति से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे।
एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि वर्ष 2050 तक ग्लेशियरों के पिघलने से भारत, चीन, पाकिस्तान और अन्य एशियाई देशों में आबादी का वह निर्धन तबका प्रभावित होगा जो प्रमुख एवं सहायक नदियों पर निर्भर है।
आईपीसीसी की रिपोर्ट में बताया गया है कि 2005 में बिजली सप्लाई के दूसरे ऊर्जा विकल्पों की तुलना में न्यूक्लियर पावर का योगदान 16 प्रतिशत है , जो 2030 तक 18 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता है। इससे कार्बन उत्सर्जन की कटौती के काम में काफी मदद मिल सकती है , पर इसके रास्ते में अनेक बाधाएं हैं - जैसे परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा की चिंता , इससे जुड़े एटमी हथियारों के प्रसार का खतरा और परमाणु संयंत्रों से निकलने वाले एटमी कचरे के निबटान की समस्या।
अगर एटमी ऊर्जा का विकल्प ऐसे देशों को हासिल हो गया , जिनका अपने एटमी संयंत्रों पर पूरी तरह कंट्रोल नहीं है , तो यह विकल्प काफी खतरनाक हो सकता है। ऐसी स्थिति में वे न सिर्फ खुद बड़ी मात्रा में परमाणु हथियार बनाकर दुनिया के लिए बड़ी भारी चुनौती खड़ी कर सकते हैं और आतंकवादी भी इसका फायदा उठा सकते है ।
आज दुनिया एटमी कचरे के पूरी तरह सुरक्षित निष्पादन का तरीका नहीं खोज पाई है। इसका खतरा यह है कि अगर किसी वजह से इंसान उस रेडियोधर्मी कचरे के संपर्क में आ जाए , तो उनमें कैंसर और दूसरी जेनेटिक बीमारियां पैदा हो सकती हैं। इन स्थितियों के मद्देनजर जो लोग ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के सिलसिले में एटमी एनर्जी को एक समाधान के रूप में देखने के विरोधी हैं , वे अक्सर अक्षय ऊर्जा के दूसरे स्रोतों को ज्यादा आकर्षक और सुरक्षित विकल्प बताते हैं।
एटमी एनर्जी कोई सरल - साधारण हल नहीं हो सकती , क्योंकि एक न्यूक्लियर प्लांट को चलाने के लिए बहुत ऊंचे स्तर की तकनीकी दक्षता , नियामक संस्थानों और सुरक्षा के उपायों की जरूरत पड़ती है। यह भी जरूरी नहीं है कि ये सभी जगह एक साथ मुहैया हो सकें। इसकी जगह अक्षय ऊर्जा के विकल्पों में सार्वभौमिकता की ज्यादा गुंजाइश है , पर इनमें भी कुछ चीजों की अनिवार्यता अड़चन डालती है। उदाहरण के लिए सौर ऊर्जा या पवन ऊर्जा की क्षमता वहां हासिल नहीं की जा सकती , जहां सूरज की किरणें और हवा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न हों। जिन देशों में साल के आठ महीने सूरज के दर्शन मुश्किल से होते हों , वहां सौर ऊर्जा का प्लांट लगाने से कुछ हासिल नहीं हो सकता। इसी तरह पवन ऊर्जा के प्लांट ज्यादातर उन इलाकों में फायदेमंद साबित हो सकते हैं , जो समुद्र तटों पर स्थित हैं और जहां तेज हवाएं चलती हैं।
किसी भी देश को अपने लिए ऊर्जा के सभी विकल्पों को आजमाना होगा और अगर उसके लिए ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन महत्वपूर्ण मुद्दा है , तो उसे अक्षय ऊर्जा बनाम एटमी ऊर्जा के बीच सावधानी से चुनाव करना होगा। यह स्वाभाविक ही है कि एटमी एनर्जी को लेकर कायम चिंताओं के बावजूद अगले पांच वर्षों में इसमें उल्लेखनीय इजाफा हो सकता है। बिजली पैदा करने वाले ताप संयंत्र ( थर्मल प्लांट ) भारी मात्रा में कार्बन डाइ - ऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं , जबकि उनकी तुलना में एटमी संयंत्र क्लीन एनर्जी का विकल्प देते हैं। उनसे पर्यावरण प्रदूषण का कोई प्रत्यक्ष खतरा नहीं है। आज दुनिया जिस तरह से क्लीन एनर्जी के विकल्प आजमाने पर जोर दे रही है , उस लिहाज से भी भविष्य परमाणु संयंत्रों से मिलने वाली बिजली का ही है। परमाणु संयंत्रों से मिलने वाली बिजली काफी सस्ती भी पड़ सकती है ।
सरकार और प्राइवेट सेक्टर को अक्षय ऊर्जा के मामले में शोध और डिवेलपमंट पर भारी निवेश करने की जरूरत है। इससे अक्षय ऊर्जा की लागत में उल्लेखनीय कमी लाई जा सकेगी। आज की तारीख में कार्बन उत्सर्जन की कीमत पर अक्षय ऊर्जा प्राप्त करने की लागत एटमी एनर्जी की तुलना में काफी ज्यादा है।
ऑस्ट्रेलिया के पास मौजूद पापुआ न्यूगिनी का एक पूरा द्वीप डूबने वाला है। कार्टरेट्स नाम के इस आइलैंड की पूरी आबादी दुनिया में ऐसा पहला समुदाय बन गई है जिसे ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से अपना घर छोड़ना पड़ रहा है - यानी ग्लोबल वॉर्मिंग की पहली ऑफिशल विस्थापित कम्युनिटी। जिस टापू पर ये लोग रहते हैं वह 2015 तक पूरी तरह से समुद्र के आगोश में समा जाएगा।
ऑस्ट्रेलिया की नैशनल टाइड फैसिलिटी ने कुछ द्वीपों को मॉनिटर किया है। उसके अनुसार यहां के समुद्र के जलस्तर में हर साल 8।2 मिलीमीटर की बढ़ोतरी हो रही है। ग्लोबल वॉर्मिंग के बढ़ने के साथ यह समस्या और बढ़ती जाएगी। कार्टरेट्स के 40 परिवार इसके पहले शिकार हैं।
इस तरह हमें ग्लोबल वार्मिंग की समस्या को काफी गंभीरता से लेना होगा । क्योटो प्रोटोकाल के बाद आने वाले प्रोटोकाल में इसके लिए पुख्ता इंतजाम किया जाना चाइये ताकि कोई भी अपनी जिम्मेदारी से बच नही सके । भारत सरकार को भी अपने स्टार से जिम्मेदारी का निर्वहन करना चाहिए । हम प्रकृति के साथ खिलवाड़ नही कर सकते अगर करते है तो आने वाली जेनेरेशन को जवाब देना पड़ेगा । अभी समय है और समय रहते ही त्वरित उपाय करने होंगे नही तो परिणाम भयंकर हो सकते है ।
tez news
i Love My Fazilka
किसी भी प्राकृतिक आपदा का प्रभाव कई कारकों के आधार पर मापा जाता है। मसलन सही उपकरणों और सूचना तक पहुंच और राहत और उपाय के लिए प्रभावी राजनैतिक तंत्र। कई बार इनका प्रभावी तरीके से काम न करना आपदा से प्रभावित होने वाले हाशिए पर पड़े लोगों की जिंदगी और भी बदतर कर देता है।
मौसम में बदलाव के कारण ज्यादा बड़े स्तर पर आने वाली प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए प्रभावी तंत्र बनाया जाए, नही तो तबाही और ज्यादा होगी। घनी आबादी वाले और खतरे की आशंका से जूझ रहे इलाकों में सरकारी तंत्र और स्थानीय लोगों को सुविधाएं और प्रशिक्षण दिया जाए, ताकि आपदा के बाद पुनर्वास के दौरान तेजी बनी रहे और काम की निगरानी भी हो।
हमारी पर्यावरण चिंताओं पर यह निराशावादी सोच इतनी हावी होती जा रही है कि अब यह कहना फैशन बन गया है कि जनसंख्या यूं ही बढ़ती रही तो 2030 तक हमें रहने के लिए दो ग्रहों की जरूरत होगी।
वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) और पर्यावरण संरक्षण से जुड़े कई अन्य संगठन इस फुटप्रिंट को आधार बनाकर जटिल गणनाएं करते रहे हैं। उनके मुताबिक हर अमेरिकी इस धरती का 9।4 हेक्टेयर इस्तेमाल करता है। हर यूरोपीय व्यक्ति 4.7 हेक्टेयर का उपयोग करता है। कम आय वाले देशों में रहने वाले लोग सिर्फ एक हेक्टेयर का इस्तेमाल करते हैं। कुल मिलाकर हम सामूहिक रूप से 17.5 अरब हेक्टेयर का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से हम एक अरब इंसानों को धरती पर जीवित रहने के लिए 13.4 हेक्टेयर ही उपलब्ध है।
सभी तरह के उत्सर्जन में 50 फीसदी की कटौती से भी हम ग्रीन हाउस गैसों को काफी हद तक कम कर सकते हैं। एरिया एफिशियंशी के लिहाज से कार्बन कम करने के लिए जंगल उगाना बहुत प्रभावी उपाय नहीं है। इसके लिए अगर सोलर सेल्स और विंड टर्बाइन लगाए जाएं, तो वे जंगलों की एक फीसदी जगह भी नहीं लेंगे। सबसे अहम बात यह है कि इन्हें गैर-उत्पादक क्षेत्रों में भी लगाया जा सकता है। मसलन, समुद में विंड टर्बाइन और रेगिस्तान में सोलर सेल्स लगाए जा सकते हैं।
जर्नल 'साइंस' में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, भारत समेत तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों को तेजी से बढ़ती जनसंख्या और उपज में कमी की वजह से खाद्य संकट का सामना करना पड़ेगा। तापमान में बढ़ोतरी से जमीन की नमी प्रभावित होगी, जिससे उपज में और ज्यादा गिरावट आएगी। इस समय ऊष्ण कटिबंधीय और उप-ऊष्ण कटिबंधीय इलाकों में तीन अरब लोग रह रहे हैं।एक अनुमान के मुताबिक 2100 तक यह संख्या दोगुनी हो जाएगी। रिसर्चरों के अनुसार, दक्षिणी अमेरिका से लेकर उत्तरी अर्जेन्टीना और दक्षिणी ब्राजील, उत्तरी भारत और दक्षिणी चीन से लेकर दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया और समूचा अफ्रीका इस स्थिति से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे।
एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि वर्ष 2050 तक ग्लेशियरों के पिघलने से भारत, चीन, पाकिस्तान और अन्य एशियाई देशों में आबादी का वह निर्धन तबका प्रभावित होगा जो प्रमुख एवं सहायक नदियों पर निर्भर है।
आईपीसीसी की रिपोर्ट में बताया गया है कि 2005 में बिजली सप्लाई के दूसरे ऊर्जा विकल्पों की तुलना में न्यूक्लियर पावर का योगदान 16 प्रतिशत है , जो 2030 तक 18 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता है। इससे कार्बन उत्सर्जन की कटौती के काम में काफी मदद मिल सकती है , पर इसके रास्ते में अनेक बाधाएं हैं - जैसे परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा की चिंता , इससे जुड़े एटमी हथियारों के प्रसार का खतरा और परमाणु संयंत्रों से निकलने वाले एटमी कचरे के निबटान की समस्या।
अगर एटमी ऊर्जा का विकल्प ऐसे देशों को हासिल हो गया , जिनका अपने एटमी संयंत्रों पर पूरी तरह कंट्रोल नहीं है , तो यह विकल्प काफी खतरनाक हो सकता है। ऐसी स्थिति में वे न सिर्फ खुद बड़ी मात्रा में परमाणु हथियार बनाकर दुनिया के लिए बड़ी भारी चुनौती खड़ी कर सकते हैं और आतंकवादी भी इसका फायदा उठा सकते है ।
आज दुनिया एटमी कचरे के पूरी तरह सुरक्षित निष्पादन का तरीका नहीं खोज पाई है। इसका खतरा यह है कि अगर किसी वजह से इंसान उस रेडियोधर्मी कचरे के संपर्क में आ जाए , तो उनमें कैंसर और दूसरी जेनेटिक बीमारियां पैदा हो सकती हैं। इन स्थितियों के मद्देनजर जो लोग ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के सिलसिले में एटमी एनर्जी को एक समाधान के रूप में देखने के विरोधी हैं , वे अक्सर अक्षय ऊर्जा के दूसरे स्रोतों को ज्यादा आकर्षक और सुरक्षित विकल्प बताते हैं।
एटमी एनर्जी कोई सरल - साधारण हल नहीं हो सकती , क्योंकि एक न्यूक्लियर प्लांट को चलाने के लिए बहुत ऊंचे स्तर की तकनीकी दक्षता , नियामक संस्थानों और सुरक्षा के उपायों की जरूरत पड़ती है। यह भी जरूरी नहीं है कि ये सभी जगह एक साथ मुहैया हो सकें। इसकी जगह अक्षय ऊर्जा के विकल्पों में सार्वभौमिकता की ज्यादा गुंजाइश है , पर इनमें भी कुछ चीजों की अनिवार्यता अड़चन डालती है। उदाहरण के लिए सौर ऊर्जा या पवन ऊर्जा की क्षमता वहां हासिल नहीं की जा सकती , जहां सूरज की किरणें और हवा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न हों। जिन देशों में साल के आठ महीने सूरज के दर्शन मुश्किल से होते हों , वहां सौर ऊर्जा का प्लांट लगाने से कुछ हासिल नहीं हो सकता। इसी तरह पवन ऊर्जा के प्लांट ज्यादातर उन इलाकों में फायदेमंद साबित हो सकते हैं , जो समुद्र तटों पर स्थित हैं और जहां तेज हवाएं चलती हैं।
किसी भी देश को अपने लिए ऊर्जा के सभी विकल्पों को आजमाना होगा और अगर उसके लिए ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन महत्वपूर्ण मुद्दा है , तो उसे अक्षय ऊर्जा बनाम एटमी ऊर्जा के बीच सावधानी से चुनाव करना होगा। यह स्वाभाविक ही है कि एटमी एनर्जी को लेकर कायम चिंताओं के बावजूद अगले पांच वर्षों में इसमें उल्लेखनीय इजाफा हो सकता है। बिजली पैदा करने वाले ताप संयंत्र ( थर्मल प्लांट ) भारी मात्रा में कार्बन डाइ - ऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं , जबकि उनकी तुलना में एटमी संयंत्र क्लीन एनर्जी का विकल्प देते हैं। उनसे पर्यावरण प्रदूषण का कोई प्रत्यक्ष खतरा नहीं है। आज दुनिया जिस तरह से क्लीन एनर्जी के विकल्प आजमाने पर जोर दे रही है , उस लिहाज से भी भविष्य परमाणु संयंत्रों से मिलने वाली बिजली का ही है। परमाणु संयंत्रों से मिलने वाली बिजली काफी सस्ती भी पड़ सकती है ।
सरकार और प्राइवेट सेक्टर को अक्षय ऊर्जा के मामले में शोध और डिवेलपमंट पर भारी निवेश करने की जरूरत है। इससे अक्षय ऊर्जा की लागत में उल्लेखनीय कमी लाई जा सकेगी। आज की तारीख में कार्बन उत्सर्जन की कीमत पर अक्षय ऊर्जा प्राप्त करने की लागत एटमी एनर्जी की तुलना में काफी ज्यादा है।
ऑस्ट्रेलिया के पास मौजूद पापुआ न्यूगिनी का एक पूरा द्वीप डूबने वाला है। कार्टरेट्स नाम के इस आइलैंड की पूरी आबादी दुनिया में ऐसा पहला समुदाय बन गई है जिसे ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से अपना घर छोड़ना पड़ रहा है - यानी ग्लोबल वॉर्मिंग की पहली ऑफिशल विस्थापित कम्युनिटी। जिस टापू पर ये लोग रहते हैं वह 2015 तक पूरी तरह से समुद्र के आगोश में समा जाएगा।
ऑस्ट्रेलिया की नैशनल टाइड फैसिलिटी ने कुछ द्वीपों को मॉनिटर किया है। उसके अनुसार यहां के समुद्र के जलस्तर में हर साल 8।2 मिलीमीटर की बढ़ोतरी हो रही है। ग्लोबल वॉर्मिंग के बढ़ने के साथ यह समस्या और बढ़ती जाएगी। कार्टरेट्स के 40 परिवार इसके पहले शिकार हैं।
इस तरह हमें ग्लोबल वार्मिंग की समस्या को काफी गंभीरता से लेना होगा । क्योटो प्रोटोकाल के बाद आने वाले प्रोटोकाल में इसके लिए पुख्ता इंतजाम किया जाना चाइये ताकि कोई भी अपनी जिम्मेदारी से बच नही सके । भारत सरकार को भी अपने स्टार से जिम्मेदारी का निर्वहन करना चाहिए । हम प्रकृति के साथ खिलवाड़ नही कर सकते अगर करते है तो आने वाली जेनेरेशन को जवाब देना पड़ेगा । अभी समय है और समय रहते ही त्वरित उपाय करने होंगे नही तो परिणाम भयंकर हो सकते है ।
tez news
i Love My Fazilka
जननी सुरक्षा का कमाल,पुरुषो ने दिया बच्चो को जन्म
उदयपुर [ तारिक हबीब] आप हैरत में पड जायेगा। आपने सोचा भी नहीं होगा कि पुरुष भी बच्चे पैदा कर सकते हैं? शायद नहीं। पर राजस्थान में ऐसा ही हो रहा है। राजस्थान के स्वास्थ्य केंद्र पर ऐसी एक नहीं 32 घटनाएं दर्ज हैं। यहीं नहीं यहां एक महिला ने एक साल में 24 बार बच्चों को जन्म दिया है। गिनेस बुक के विश्व रेकॉर्ड को तोड़ देने वाले इन आंकड़ों से साफ जाहिर है कि यह हकीकत नहीं बल्कि एक नया घोटाला है।
एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि उदयपुर के करीब एक कस्बे के गोगुंडा सामुदायिक केंद्र में स्थानीय स्वास्थ्य विभाग ने शुक्रवार को इस घोटाले का पता लगाया।इस केंद्र की गर्भावस्था सहायिकाओं ने केंद्र सरकार की जननी सुरक्षा योजना के तहत गरीबी रेखा से नीचे की गर्भवती महिलाओं के लिए निर्धारित सहायता राशि को हड़पने के लिए गलत रिपोर्ट पेश की।
जननी सुरक्षा योजना के तहत पहले दो बच्चों के जन्म के लिए गरीबी रेखा से नीचे की महिला को 1700 रुपये और प्रत्येक प्रसव पर मिडवाइफ को इसके लिए 200 रुपये मिलते हैं। योजना का मकसद प्रसव के दौरान जच्चे और बच्चे की होने वाली मृत्यु को रोकना है। योजना के तहत गर्भवती महिलाओं को प्रसव से पहले कई तरह की सेवाएं और सुविधाएं दी जाती हैं।
अधिकारी ने बताया कि स्वास्थ्य केंद्र के रेकॉर्ड में ऐसे 32 पुरुषों के नाम दर्ज हैं, जिन्होंने संतान को जन्म दिया। इनमें से कुछ के नाम कई बार दर्ज हैं।
रेकॉर्ड के अनुसार 60 साल की महिला ने साल में दो बार बच्चे को जन्म दिया। सीता नाम की महिला ने तो साल में 24 बच्चे पैदा किए। अधिकारी ने बताया कि गर्भवास्था वार्ड की प्रमुख ने खुद भी एक साल में 11 बच्चे पैदा किए।
अधिकारी ने बताया कि घोटालों के उजागर होने के बाद वार्ड प्रमुख को पद से हटा दिया गया है और वह इस समय फरार है। उसने बताया कि विभागीय जांच के बाद शिकायत दर्ज कराई जाएगी। जांच के लिए तीन सीनियर डॉक्टरों की टीम बनाई गई है।
tez news
i Love My Fazilka
एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि उदयपुर के करीब एक कस्बे के गोगुंडा सामुदायिक केंद्र में स्थानीय स्वास्थ्य विभाग ने शुक्रवार को इस घोटाले का पता लगाया।इस केंद्र की गर्भावस्था सहायिकाओं ने केंद्र सरकार की जननी सुरक्षा योजना के तहत गरीबी रेखा से नीचे की गर्भवती महिलाओं के लिए निर्धारित सहायता राशि को हड़पने के लिए गलत रिपोर्ट पेश की।
जननी सुरक्षा योजना के तहत पहले दो बच्चों के जन्म के लिए गरीबी रेखा से नीचे की महिला को 1700 रुपये और प्रत्येक प्रसव पर मिडवाइफ को इसके लिए 200 रुपये मिलते हैं। योजना का मकसद प्रसव के दौरान जच्चे और बच्चे की होने वाली मृत्यु को रोकना है। योजना के तहत गर्भवती महिलाओं को प्रसव से पहले कई तरह की सेवाएं और सुविधाएं दी जाती हैं।
अधिकारी ने बताया कि स्वास्थ्य केंद्र के रेकॉर्ड में ऐसे 32 पुरुषों के नाम दर्ज हैं, जिन्होंने संतान को जन्म दिया। इनमें से कुछ के नाम कई बार दर्ज हैं।
रेकॉर्ड के अनुसार 60 साल की महिला ने साल में दो बार बच्चे को जन्म दिया। सीता नाम की महिला ने तो साल में 24 बच्चे पैदा किए। अधिकारी ने बताया कि गर्भवास्था वार्ड की प्रमुख ने खुद भी एक साल में 11 बच्चे पैदा किए।
अधिकारी ने बताया कि घोटालों के उजागर होने के बाद वार्ड प्रमुख को पद से हटा दिया गया है और वह इस समय फरार है। उसने बताया कि विभागीय जांच के बाद शिकायत दर्ज कराई जाएगी। जांच के लिए तीन सीनियर डॉक्टरों की टीम बनाई गई है।
tez news
i Love My Fazilka
किस करवट बैठेगा ‘भ्रष्टाचार का ऊंट
निर्मल रानी]
वरिष्ठ गांधीवादी एवं समाजसेवी अन्ना हज़ारे द्वारा भ्रष्टाचार के मुद्दे को प्रबलता से उठाए जाने के बाद निश्चित रूप से देश में भ्रष्टाचार विरोधी वातावरण बहुत तेज़ी से बनता दिखाई दे रहा है। भले ही केंद्र सरकार द्वारा कथित ‘सिविल सोसायटी’ का प्रतिनिधित्व करने वाली,टीम अन्ना द्वारा सुझाए गए जनलोकपाल विधेयक के प्रारूप को पूरी तरह स्वीकार न किया गया हो परंतु इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि सरकार द्वारा सदन में लोकपाल विधेयक लाए जाने में तत्परता दिखाए जाने का कारण भी महज़ टीम अन्ना हज़ारे द्वारा सरकार पर डाला गया दबाव ही है। अन्ना हज़ारे द्वारा गत् 4 अप्रैल को जंतर-मंतर पर किए गए आमरण अनशन तथा उसी दौरान न केवल लगभग पूरे देश में बल्कि कई अन्य देशों में भी अनशन, प्रदर्शन व धरनों के बाद तथा इन सब के बाद केंद्र सरकार द्वारा टीम अन्ना के समक्ष घुुटने टेकने की घटना के पश्चात भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम और अधिक र$फतार पकड़ चुकी है। अन्ना हज़ारे द्वारा 4 अप्रैल को जंतर-मंतर पर किए गए आमरण अनशन से लेकर अब तक के तमाम उतार-चढ़ाव के बाद अब एक बार फिर पूरा देश आने वाली 16 अगस्त यानी अन्ना के आमरण अनशन की एक और धमकी वाले दिन का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार कर रहा है। देश की आम जनता अब वास्तव में यह जानना चाहती है कि देखें भ्रष्टाचार रूपी दैत्याकार ऊं ट आखिऱ किस करवट बैठता है।
भ्रष्टाचार संबंधी बहस इस समय वैसे भी देशवासियों के लिए दिलचस्पी का अहम मुद्दा इसलिए बन गई है क्योंकि भ्रष्टाचार में डूबा,भ्रष्टाचार का आदी हो चुका तथा भ्रष्टाचार करने के लिए मजबूर व अपनी सुविधाओं के चलते भ्रष्टाचार क ो प्रोत्साहन देने वाला देश का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करने अथवा इस पर अंकुश लगाने जैसी बातों को रचनात्मक बात नहीं मानता। शायद यही वजह है कि भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार डा० कौशिक बसु ने रिश्वत $खोरी को सुविधा शुल्क का नाम देते हुए इसे वैधानिक जामा पहनाए जाने की वकालत की थी। बहरहाल भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर आम लोगों क ा अलग-अलग मतों में बंटा होना इस बात का प्रमाण नहीं माना जा सकता कि रिश्वत ख़ोरी व भ्रष्टाचार सभ्य एवं सम्मान जनक राष्ट्र के निवासियों के लक्षण हैं। निश्चित रूप से भ्रष्टाचार व रिश्वत खोरी इस समय देश को दीमक के समान चाटे जा रहे हैं और यही बुराई, काला धन, जमा$खोरी विभिन्न प्रकार के अपराध,अराजकता, देश में फैली $गरीबी,बदहाली,अव्यवस्था यहां तक कि बदहाल समाज की नुमांईदगी करने का दम भरने वाले हिंसक माओवाद तथा नक्सलवाद की भी जड़ हैं। भ्रष्टाचार देश के चहुंमुखी विकास के लिए भी बड़ा रोड़ा है।
राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रप्रेम तथा देश के विकास की उम्मीदें संजोने वाला हर व्यक्ति निश्चित रूप से इस समय भ्रष्टाचार से बेहद दुखी है। यदि ऐसा न होता तो अन्ना हज़ारे जैसे साधारण सामाजिक कार्यकर्ता के साथ देश का असंगठित भ्रष्टाचार विरोधी समाज जंतर-मंतर पर किए गए मात्र चंद दिनों के उनके अनशन के दौरान राष्ट्रीय स्तर पर उनके साथ इस प्रकार संगठित होकर खड़ा न हुआ होता। अन्ना हज़ारे ने निश्चित रूप से ऐसे समय में जन लोकपाल विधेयक की मांग के साथ भ्रष्टाचार के मुद्दे को उछाला है जबकि देश के लोगों को ऐसा महसूस होने लगा था कि गोया देश की व्यवस्था अब देश को बेच खाने पर ही उतारू हो गई है। जिस देश मेें केंद्रीय मंत्री, भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्रवाद का स्वयं भू पैरोकार बताने वाली भारतीय जनता पार्टी जैसे दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण, मुख्यमंत्री के रूप में मधु कौड़ा जैसे लुटेरे, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण, सुरेश कलमाड़ी जैसी हस्तियां तथा देश के अन्य तमाम राज्यों के तमाम मंत्री,सांसद तथा विधायक आदि भ्रष्टाचार, रिश्वतख़ोरी में संलिप्त पाए जाएं तथा देश के तमाम नेता, उच्च अधिकारी यहां तक कि लिपिक स्तर के कर्मचारी तक आय से अधिक धन संपत्ति इक_ी करने लग जाएं तो ऐसे में देश के आम आदमी विशेषकर ईमानदार व सच्चे राष्ट्रभक्त व्यक्ति का चिंतित होना स्वाभाविक ही है।
जंतर-मंतर पर 4 अप्रैल को हुए अन्ना हज़ारे के अनशन से लेकर 16 अगस्त क ो उन्हीं के द्वारा इसी मुद्दे पर पुन: आमरण अनशन शुरू करने के अंंतराल के दौरान टीम अन्ना तथा केंद्र सरकार के मध्य वार्ताओं का जो दौर चला तथा संसद में पेश किए जाने वाले सरकारी लोकपाल विधेयक व टीम अन्ना द्वारा प्रस्तावित जनलोकपाल विधेयक के मसविदों के मध्य जो टकराव व विवाद की स्थिति देखी जा रही है उसे देखकर भी आम जनता बेहद दुखी है। प्रधानमंत्री हों अथवा देश का मुख्य न्यायधीश यहां तक कि भारत का सर्वाेच्च प्रथम नागरिक भारतीय राष्ट्रपति तक हमारे ही देश के समाज के सदस्य होते हैं। किसी भी बड़े से बड़े अथवा छोटे से छोटे पद पर बैठने वाले व्यक्ति का पारदर्शी होना अथवा उसे अपने ऊपर लगने वाले किन्हीं आरोपों का जवाब देना किसी भी व्यक्ति के लिए कोई अपमानजनक बात नहीं मानी जा सकती। यहां यह लिखने की ज़रूरत तो नहीं कि देश का कौन-कौन सा विभाग रिश्वत व भ्रष्टाचार का गढ़ बन चुका है। बजाए इसके यह ज़रूर सवाल किया जा सकता है कि देश की व्यवस्था स्वयं इस बात का जवाब दे कि आखिर देश का कौन सा विभाग ऐसा है जिसमें भ्रष्ट लोग नहीं हैं। जिसमें रिश्वत $खोरी $कतई नहीं चलती या जिससे जुड़े लोग बिना किसी दबाव या सिफारिश के काम नहीं करते ? भ्रष्टाचार के संबंध में बार-बार जो यह बात कही जा रही है कि देश आकंठ भ्रष्टचार में डूबा है इसका अर्थ ही यही है कि देश के लगभग सभी तंत्र यहां तक कि सारी की सारी व्यवस्था भ्रष्टाचार में डूबी हुई है।
ऐसे में सरकार का ‘टीम अन्ना’ द्वारा सुझाए गए जनलोकपाल विधेयक के मसविदे पर उंगली उठाने या उसे अस्वीकार करने अथवा उस पर बेवजह की नुक्ताचीनी करने का कोई औचित्य नज़र नहीं नहीं आता। आम जनता प्रधानमंत्री व मुख्य न्यायाधीश को लोकपाल विधेयक के दायरे से बाहर रखने के सरकारी पक्ष से $कतई सहमत नज़र नहीं आती। सरकार द्वारा अपने लोकपाल विधेयक के पक्ष में जितने तर्क दिए जा रहे हैं सभी तर्कों को टीम अन्ना $खारिज कर रही है। सरकार जहां टीम अन्ना के जनलोकपाल विधेयक मसौदे को स्वीकार करने में आनाकानी कर रही है वहीं टीम अन्ना सरकारी मसौदे को जनता के साथ मज़ाक तथा धोखा बता रही है। मज़े की बात तो यह है कि सरकारी पक्ष की ओर से भी प्रणव मुखर्जी जैसे वरिष्ठ नेता पैरोकार हैं जिनकी ईमानदारी को लेकर संदेह नहीं किया जा सकता। सरकारी पक्ष का भी इत्ते$फा$क से वही कहना है जो टीम अन्ना कह रही है या जो देश का आम नागरिक कह रहा है। अर्थात् भ्रष्टाचार व रिश्वत$खोरी बंद हो, भ्रष्टाचारियों को स$ख्त सज़ा हो तथा इनकी भ्रष्टाचार की कमाई को सरकार ज़ब्त करे। ऐसे में मात्र मुख्य न्यायधीश तथा प्रधानमंत्री को लोकपाल की जांच परिधि से बाहर रखने का सरकारी पक्ष का मत जनता के गले से नहीं उतर पा रहा है। सरकार द्वारा अपनी इस बात के पक्ष में दिए जाने वाले सभी तर्क भी बेदम नज़र आ रहे हैं।
ऐसे में संदेह यह होने लगा है कि क्या वास्तव में सरकार व टीम अन्ना के बीच का मतभेद सिर्फ इसी विषय को लेकर है कि प्रधानमंत्री व मुख्य न्यायाधीश लोकपाल की जांच के दायरे में आएं या न आएं? अथवा सरकार द्वारा इस मुद्दे को केवल इसलिए बहाने के रूप में इस्तेमाल किया गया है ताकि सदन में इसे लाने से टाला जा सके। और यदि सरकार टाल-मटोल के लिए मसविदे के इस विशेष बिंदु को बहाना बना रही है फिर आखिर इस बहाने बाज़ी की वजह व इसका रहस्य क्या है? और इस मामले में एक दुर्भाग्य पूर्ण बात यह भी दिखाई देती है कि जब भी टीम अन्ना के सदस्य सरकारी पक्ष के तर्कों को अपने तर्कों से धराशायी करते हैं उस समय सरकारी पक्ष के पैरोकार आनन-$फानन में देश के लोकतंात्रिक ढांचे तथा संवैधानिक व्यवस्था का तकनीकी सहारा लेकर टीम अन्ना से यह पूछने लग जाते हैं कि आप हैं कौन? किसने दिया आपको यह अधिकार कि आप स्वयंभू रूप से देश की जनता के बैठे -बिठाए नुमाइंदे बन बैठें? सरकारी पक्ष के पैरोकारों का यह तर्क तर्कपूर्ण,वैधानिक अथवा संवैधानिक तो माना जा सकता है परंतु नैतिक कतई नहीं।
इस विषय पर अन्ना हज़ारे हालांकि चुने गए जनप्रतिनिधियों को स्वीकार करते हैं उन्हें मानते हैं तथा चुने गए जनप्रतिनिधि के नाते उन्हें पूरा सम्मान व महत्व भी देते हैं। और यही वजह है कि लोकपाल विधेयक के माध्यम से भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने का जि़म्मा अन्ना हज़ारे सरकार व निर्वाचित जनप्रतिनिधियों पर ही छोडऩा चाहते हैं। वे स्वयं इस भ्रष्टाचार विरोधी सुधार तंत्र का हिस्सा नहीं बनना चाहते। परंतु अन्ना हज़ारे जनता के मध्य समाजसेवी की अपनी हैसियत व पहचान को चुनौती देने वाले ‘वास्तविक’ जनप्रतिनिधियों को यह ज़रूर याद दिलाते हैं कि आप को जनता ने अपना प्रतिनिधि इसलिए नहीं चुना कि आप देश को लूटें, बेचें और खाएं। बल्कि इसलिए चुना है ताकि आप देश को भ्रष्टाचार से मुक्त रखते हुए पूरी ईमानदारी व पारदर्शिता के साथ इसे प्रगति के पथ पर ले जा सकें।
सरकारी पक्ष व टीम अन्ना के मध्य का विवाद अब इस इंतेहा तक पहुंच चुका है कि अन्ना हज़ारे ने जन लोकपाल विधेयक के अपने प्रारूप के सर्मथन में एक बार फिर 16 अगस्त को दिल्ली में आमरण अनशन करने की घोषणा कर दी है। इसे वे स्वतंत्रता की दूसरी लड़ाई का नाम दे रहे हैं। सरकार द्वारा भी जंतर मंतर पर हुए अन्ना हज़ारे के पिछले आमरण अनशन के बाद तथा बाद में ‘रामलीला’ मैदान में हुए अपने अनुभव के अनुसार 16 अगस्त के लिए भी रक्षात्मक $कदम उठाने की कोशिश की जा रही है। कभी धारा 144 लगाई जाती है तो कभी अदालत के भयवश इस आदेश को वापस भी ले लेती है। और कभी जंतर-मंतर को अनशन स्थल के लिए प्रयोग करने की इजाज़त देने से इंकार किया जाता है। ऐसे तनावपूर्ण वातावरण में आम जनता की नज़रें एक बार फिर 16 अगस्त पर जा टिकी हैं। इसमें कोई शक नहीं कि देश में भ्रष्टाचार विरोधी इतनी व्यापक मुहिम पहले कभी नहीं छिड़ी। आम आदमी की नजऱें इस लिए भी 16 अगस्त पर जा टिकी हैं कि आखिर टीम अन्ना व सरकारी पक्ष के मतभेदों व विवादों के बीच भ्रष्टाचार का यह ऊंट बैठेगा किस करवट?
tez news
i Love My Fazilka
वरिष्ठ गांधीवादी एवं समाजसेवी अन्ना हज़ारे द्वारा भ्रष्टाचार के मुद्दे को प्रबलता से उठाए जाने के बाद निश्चित रूप से देश में भ्रष्टाचार विरोधी वातावरण बहुत तेज़ी से बनता दिखाई दे रहा है। भले ही केंद्र सरकार द्वारा कथित ‘सिविल सोसायटी’ का प्रतिनिधित्व करने वाली,टीम अन्ना द्वारा सुझाए गए जनलोकपाल विधेयक के प्रारूप को पूरी तरह स्वीकार न किया गया हो परंतु इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि सरकार द्वारा सदन में लोकपाल विधेयक लाए जाने में तत्परता दिखाए जाने का कारण भी महज़ टीम अन्ना हज़ारे द्वारा सरकार पर डाला गया दबाव ही है। अन्ना हज़ारे द्वारा गत् 4 अप्रैल को जंतर-मंतर पर किए गए आमरण अनशन तथा उसी दौरान न केवल लगभग पूरे देश में बल्कि कई अन्य देशों में भी अनशन, प्रदर्शन व धरनों के बाद तथा इन सब के बाद केंद्र सरकार द्वारा टीम अन्ना के समक्ष घुुटने टेकने की घटना के पश्चात भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम और अधिक र$फतार पकड़ चुकी है। अन्ना हज़ारे द्वारा 4 अप्रैल को जंतर-मंतर पर किए गए आमरण अनशन से लेकर अब तक के तमाम उतार-चढ़ाव के बाद अब एक बार फिर पूरा देश आने वाली 16 अगस्त यानी अन्ना के आमरण अनशन की एक और धमकी वाले दिन का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार कर रहा है। देश की आम जनता अब वास्तव में यह जानना चाहती है कि देखें भ्रष्टाचार रूपी दैत्याकार ऊं ट आखिऱ किस करवट बैठता है।
भ्रष्टाचार संबंधी बहस इस समय वैसे भी देशवासियों के लिए दिलचस्पी का अहम मुद्दा इसलिए बन गई है क्योंकि भ्रष्टाचार में डूबा,भ्रष्टाचार का आदी हो चुका तथा भ्रष्टाचार करने के लिए मजबूर व अपनी सुविधाओं के चलते भ्रष्टाचार क ो प्रोत्साहन देने वाला देश का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करने अथवा इस पर अंकुश लगाने जैसी बातों को रचनात्मक बात नहीं मानता। शायद यही वजह है कि भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार डा० कौशिक बसु ने रिश्वत $खोरी को सुविधा शुल्क का नाम देते हुए इसे वैधानिक जामा पहनाए जाने की वकालत की थी। बहरहाल भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर आम लोगों क ा अलग-अलग मतों में बंटा होना इस बात का प्रमाण नहीं माना जा सकता कि रिश्वत ख़ोरी व भ्रष्टाचार सभ्य एवं सम्मान जनक राष्ट्र के निवासियों के लक्षण हैं। निश्चित रूप से भ्रष्टाचार व रिश्वत खोरी इस समय देश को दीमक के समान चाटे जा रहे हैं और यही बुराई, काला धन, जमा$खोरी विभिन्न प्रकार के अपराध,अराजकता, देश में फैली $गरीबी,बदहाली,अव्यवस्था यहां तक कि बदहाल समाज की नुमांईदगी करने का दम भरने वाले हिंसक माओवाद तथा नक्सलवाद की भी जड़ हैं। भ्रष्टाचार देश के चहुंमुखी विकास के लिए भी बड़ा रोड़ा है।
राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रप्रेम तथा देश के विकास की उम्मीदें संजोने वाला हर व्यक्ति निश्चित रूप से इस समय भ्रष्टाचार से बेहद दुखी है। यदि ऐसा न होता तो अन्ना हज़ारे जैसे साधारण सामाजिक कार्यकर्ता के साथ देश का असंगठित भ्रष्टाचार विरोधी समाज जंतर-मंतर पर किए गए मात्र चंद दिनों के उनके अनशन के दौरान राष्ट्रीय स्तर पर उनके साथ इस प्रकार संगठित होकर खड़ा न हुआ होता। अन्ना हज़ारे ने निश्चित रूप से ऐसे समय में जन लोकपाल विधेयक की मांग के साथ भ्रष्टाचार के मुद्दे को उछाला है जबकि देश के लोगों को ऐसा महसूस होने लगा था कि गोया देश की व्यवस्था अब देश को बेच खाने पर ही उतारू हो गई है। जिस देश मेें केंद्रीय मंत्री, भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्रवाद का स्वयं भू पैरोकार बताने वाली भारतीय जनता पार्टी जैसे दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण, मुख्यमंत्री के रूप में मधु कौड़ा जैसे लुटेरे, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण, सुरेश कलमाड़ी जैसी हस्तियां तथा देश के अन्य तमाम राज्यों के तमाम मंत्री,सांसद तथा विधायक आदि भ्रष्टाचार, रिश्वतख़ोरी में संलिप्त पाए जाएं तथा देश के तमाम नेता, उच्च अधिकारी यहां तक कि लिपिक स्तर के कर्मचारी तक आय से अधिक धन संपत्ति इक_ी करने लग जाएं तो ऐसे में देश के आम आदमी विशेषकर ईमानदार व सच्चे राष्ट्रभक्त व्यक्ति का चिंतित होना स्वाभाविक ही है।
जंतर-मंतर पर 4 अप्रैल को हुए अन्ना हज़ारे के अनशन से लेकर 16 अगस्त क ो उन्हीं के द्वारा इसी मुद्दे पर पुन: आमरण अनशन शुरू करने के अंंतराल के दौरान टीम अन्ना तथा केंद्र सरकार के मध्य वार्ताओं का जो दौर चला तथा संसद में पेश किए जाने वाले सरकारी लोकपाल विधेयक व टीम अन्ना द्वारा प्रस्तावित जनलोकपाल विधेयक के मसविदों के मध्य जो टकराव व विवाद की स्थिति देखी जा रही है उसे देखकर भी आम जनता बेहद दुखी है। प्रधानमंत्री हों अथवा देश का मुख्य न्यायधीश यहां तक कि भारत का सर्वाेच्च प्रथम नागरिक भारतीय राष्ट्रपति तक हमारे ही देश के समाज के सदस्य होते हैं। किसी भी बड़े से बड़े अथवा छोटे से छोटे पद पर बैठने वाले व्यक्ति का पारदर्शी होना अथवा उसे अपने ऊपर लगने वाले किन्हीं आरोपों का जवाब देना किसी भी व्यक्ति के लिए कोई अपमानजनक बात नहीं मानी जा सकती। यहां यह लिखने की ज़रूरत तो नहीं कि देश का कौन-कौन सा विभाग रिश्वत व भ्रष्टाचार का गढ़ बन चुका है। बजाए इसके यह ज़रूर सवाल किया जा सकता है कि देश की व्यवस्था स्वयं इस बात का जवाब दे कि आखिर देश का कौन सा विभाग ऐसा है जिसमें भ्रष्ट लोग नहीं हैं। जिसमें रिश्वत $खोरी $कतई नहीं चलती या जिससे जुड़े लोग बिना किसी दबाव या सिफारिश के काम नहीं करते ? भ्रष्टाचार के संबंध में बार-बार जो यह बात कही जा रही है कि देश आकंठ भ्रष्टचार में डूबा है इसका अर्थ ही यही है कि देश के लगभग सभी तंत्र यहां तक कि सारी की सारी व्यवस्था भ्रष्टाचार में डूबी हुई है।
ऐसे में सरकार का ‘टीम अन्ना’ द्वारा सुझाए गए जनलोकपाल विधेयक के मसविदे पर उंगली उठाने या उसे अस्वीकार करने अथवा उस पर बेवजह की नुक्ताचीनी करने का कोई औचित्य नज़र नहीं नहीं आता। आम जनता प्रधानमंत्री व मुख्य न्यायाधीश को लोकपाल विधेयक के दायरे से बाहर रखने के सरकारी पक्ष से $कतई सहमत नज़र नहीं आती। सरकार द्वारा अपने लोकपाल विधेयक के पक्ष में जितने तर्क दिए जा रहे हैं सभी तर्कों को टीम अन्ना $खारिज कर रही है। सरकार जहां टीम अन्ना के जनलोकपाल विधेयक मसौदे को स्वीकार करने में आनाकानी कर रही है वहीं टीम अन्ना सरकारी मसौदे को जनता के साथ मज़ाक तथा धोखा बता रही है। मज़े की बात तो यह है कि सरकारी पक्ष की ओर से भी प्रणव मुखर्जी जैसे वरिष्ठ नेता पैरोकार हैं जिनकी ईमानदारी को लेकर संदेह नहीं किया जा सकता। सरकारी पक्ष का भी इत्ते$फा$क से वही कहना है जो टीम अन्ना कह रही है या जो देश का आम नागरिक कह रहा है। अर्थात् भ्रष्टाचार व रिश्वत$खोरी बंद हो, भ्रष्टाचारियों को स$ख्त सज़ा हो तथा इनकी भ्रष्टाचार की कमाई को सरकार ज़ब्त करे। ऐसे में मात्र मुख्य न्यायधीश तथा प्रधानमंत्री को लोकपाल की जांच परिधि से बाहर रखने का सरकारी पक्ष का मत जनता के गले से नहीं उतर पा रहा है। सरकार द्वारा अपनी इस बात के पक्ष में दिए जाने वाले सभी तर्क भी बेदम नज़र आ रहे हैं।
ऐसे में संदेह यह होने लगा है कि क्या वास्तव में सरकार व टीम अन्ना के बीच का मतभेद सिर्फ इसी विषय को लेकर है कि प्रधानमंत्री व मुख्य न्यायाधीश लोकपाल की जांच के दायरे में आएं या न आएं? अथवा सरकार द्वारा इस मुद्दे को केवल इसलिए बहाने के रूप में इस्तेमाल किया गया है ताकि सदन में इसे लाने से टाला जा सके। और यदि सरकार टाल-मटोल के लिए मसविदे के इस विशेष बिंदु को बहाना बना रही है फिर आखिर इस बहाने बाज़ी की वजह व इसका रहस्य क्या है? और इस मामले में एक दुर्भाग्य पूर्ण बात यह भी दिखाई देती है कि जब भी टीम अन्ना के सदस्य सरकारी पक्ष के तर्कों को अपने तर्कों से धराशायी करते हैं उस समय सरकारी पक्ष के पैरोकार आनन-$फानन में देश के लोकतंात्रिक ढांचे तथा संवैधानिक व्यवस्था का तकनीकी सहारा लेकर टीम अन्ना से यह पूछने लग जाते हैं कि आप हैं कौन? किसने दिया आपको यह अधिकार कि आप स्वयंभू रूप से देश की जनता के बैठे -बिठाए नुमाइंदे बन बैठें? सरकारी पक्ष के पैरोकारों का यह तर्क तर्कपूर्ण,वैधानिक अथवा संवैधानिक तो माना जा सकता है परंतु नैतिक कतई नहीं।
इस विषय पर अन्ना हज़ारे हालांकि चुने गए जनप्रतिनिधियों को स्वीकार करते हैं उन्हें मानते हैं तथा चुने गए जनप्रतिनिधि के नाते उन्हें पूरा सम्मान व महत्व भी देते हैं। और यही वजह है कि लोकपाल विधेयक के माध्यम से भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने का जि़म्मा अन्ना हज़ारे सरकार व निर्वाचित जनप्रतिनिधियों पर ही छोडऩा चाहते हैं। वे स्वयं इस भ्रष्टाचार विरोधी सुधार तंत्र का हिस्सा नहीं बनना चाहते। परंतु अन्ना हज़ारे जनता के मध्य समाजसेवी की अपनी हैसियत व पहचान को चुनौती देने वाले ‘वास्तविक’ जनप्रतिनिधियों को यह ज़रूर याद दिलाते हैं कि आप को जनता ने अपना प्रतिनिधि इसलिए नहीं चुना कि आप देश को लूटें, बेचें और खाएं। बल्कि इसलिए चुना है ताकि आप देश को भ्रष्टाचार से मुक्त रखते हुए पूरी ईमानदारी व पारदर्शिता के साथ इसे प्रगति के पथ पर ले जा सकें।
सरकारी पक्ष व टीम अन्ना के मध्य का विवाद अब इस इंतेहा तक पहुंच चुका है कि अन्ना हज़ारे ने जन लोकपाल विधेयक के अपने प्रारूप के सर्मथन में एक बार फिर 16 अगस्त को दिल्ली में आमरण अनशन करने की घोषणा कर दी है। इसे वे स्वतंत्रता की दूसरी लड़ाई का नाम दे रहे हैं। सरकार द्वारा भी जंतर मंतर पर हुए अन्ना हज़ारे के पिछले आमरण अनशन के बाद तथा बाद में ‘रामलीला’ मैदान में हुए अपने अनुभव के अनुसार 16 अगस्त के लिए भी रक्षात्मक $कदम उठाने की कोशिश की जा रही है। कभी धारा 144 लगाई जाती है तो कभी अदालत के भयवश इस आदेश को वापस भी ले लेती है। और कभी जंतर-मंतर को अनशन स्थल के लिए प्रयोग करने की इजाज़त देने से इंकार किया जाता है। ऐसे तनावपूर्ण वातावरण में आम जनता की नज़रें एक बार फिर 16 अगस्त पर जा टिकी हैं। इसमें कोई शक नहीं कि देश में भ्रष्टाचार विरोधी इतनी व्यापक मुहिम पहले कभी नहीं छिड़ी। आम आदमी की नजऱें इस लिए भी 16 अगस्त पर जा टिकी हैं कि आखिर टीम अन्ना व सरकारी पक्ष के मतभेदों व विवादों के बीच भ्रष्टाचार का यह ऊंट बैठेगा किस करवट?
tez news
i Love My Fazilka
Subscribe to:
Posts (Atom)